संस्मरण >> आमादेर शान्तिनिकेतन आमादेर शान्तिनिकेतनशिवानी
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लेखिका के शान्तिनिकेतन प्रवास के रोचक संस्मरण...
कथाकार और उपन्यासकार के रूप में शिवानी की लेखनी ने स्तरीयता और
लोकप्रियता की खाई को पाटते हुए एक नई जमीन बनाई थी जहाँ हर वर्ग और हर
रुचि के पाठक सहज भाव से विचरण कर सकते थे। उन्होंने मानवीय संवेदनाओं और
सम्बन्धगत भावनाओं की इतने बारीक और महीन ढंग से पुनर्रचना की कि वे अपने
समय में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में एक होकर रहीं।
कहानी, उपन्यास के अलावा शिवानी ने संस्मरण और रेखाचित्र आदि विधाओं में भी बराबर लेखन किया। अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों को उन्होंने करीब से देखा, कभी लेखन की निगाह से तो कभी मनुष्य की निगाह से, और इस तरह उनके भरे-पूरे चित्रों को शब्दों में उकेरा और कलाकृति बना दिया।
इस पुस्तक में गुरुपल्ली, गुरुदेव की कर्मभूमि, शान्तिनिकेतन की गुरुपल्ली, आश्रम के पर्व, कुछ महत्वपूर्ण उत्सव, आश्रम के विकास में गुरुदेव का योग, गांधी जी-गुरुदेव, अनेक विभूतियों का आगमन, श्रीनिकेतन का मेला, खेलकूद और मनोरंजन, आश्रमवासियों के लिए गुरुदेव के गीत, छात्रों का अतिथि-प्रेम, गुरुदेव की आत्मीयता, सादा पर कलापूर्ण रहन-सहन, गुरुर्ब्रह्मा, ओ रे गृहवासी, तुई जे पुरुष मानुष रे !, आश्रम पर काले बादल शीर्षक निबन्ध शामिल है जिनका सम्बन्ध लेखिका के शान्तिनिकेतन प्रवास से है।
आशा है, शिवानी के कथा–साहित्य के पाठकों को उनकी ये रचनाएं भी पसंद आएँगी।
कहानी, उपन्यास के अलावा शिवानी ने संस्मरण और रेखाचित्र आदि विधाओं में भी बराबर लेखन किया। अपने सम्पर्क में आए व्यक्तियों को उन्होंने करीब से देखा, कभी लेखन की निगाह से तो कभी मनुष्य की निगाह से, और इस तरह उनके भरे-पूरे चित्रों को शब्दों में उकेरा और कलाकृति बना दिया।
इस पुस्तक में गुरुपल्ली, गुरुदेव की कर्मभूमि, शान्तिनिकेतन की गुरुपल्ली, आश्रम के पर्व, कुछ महत्वपूर्ण उत्सव, आश्रम के विकास में गुरुदेव का योग, गांधी जी-गुरुदेव, अनेक विभूतियों का आगमन, श्रीनिकेतन का मेला, खेलकूद और मनोरंजन, आश्रमवासियों के लिए गुरुदेव के गीत, छात्रों का अतिथि-प्रेम, गुरुदेव की आत्मीयता, सादा पर कलापूर्ण रहन-सहन, गुरुर्ब्रह्मा, ओ रे गृहवासी, तुई जे पुरुष मानुष रे !, आश्रम पर काले बादल शीर्षक निबन्ध शामिल है जिनका सम्बन्ध लेखिका के शान्तिनिकेतन प्रवास से है।
आशा है, शिवानी के कथा–साहित्य के पाठकों को उनकी ये रचनाएं भी पसंद आएँगी।
भूमिका
शान्तिनिकेतन, गुरुदेव कवीन्द्र श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सर्वोत्तम कृति
मानी जाती है। यद्यपि उन्होंने उच्चकोटि के तथा विविध विषयों के ग्रन्थों
का निर्माण किया था, तथापि भारतीय शिक्षा क्षेत्र में, उनके शान्तिनिकेतन
तथा विश्वभारती का जो प्रभाव बड़ा, वह निःसन्देह अत्यन्त व्यापक था।
कितने ही हिन्दी भाषा-भाषी छात्रों और अध्यापकों को शान्ति में पढ़ने-पढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और उनमें से कितनों ने उन संस्थाओं के बारे में संस्मरण लिखे हैं। उनमें से कुछ को पढ़ने का मौका मुझे मिला है। आचार्य श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस विषय पर काफी लिखा है और मैं भी कई बार लिख चुका हूँ। पर अब तक, शान्तिनिकेतन के इस विषय में जितने लेख मेरे पढ़ने में आए हैं। उनमें श्रीमती शिवानी कि यह पुस्तक मुझे सर्वोत्तम जँची है। यह आश्चर्य की बात है कि आश्रम की एक छात्रा, सबसे आगे बढ़कर, बाजी मार ले गई और प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लेखक पिछड़ गए। बन्धुवर हजारीप्रसाद जी तो यह कहकर सन्तोष कर सकते हैं- ‘शिष्यात् इच्छेत् पराजयम्।’ अर्थात शिष्य से पराजय की इच्छा करे; पर मेरे-जैसा व्यक्ति, जो आश्रम में सर्वप्रथम 1918 में गया था और जो वहाँ चौदह महीने रहा भी था, अपने को क्षमा नहीं कर सकता।
शिवानी की असाधारण सफलता का मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि हर चीज को सूक्ष्म दृष्टि से देखने की क्षमता उनमें विद्यमान है, भाषा पर उन्हें अधिकार है और अपने हृदगत् भावों को वे ज्यों का त्यों प्रकट कर सकती हैं। इस पुस्तिका को पढ़कर, हमारे मन में सबसे पहले यही भाव आया कि हमने ऐसी किताब क्यों नहीं लिखी। पर इतना सफलतापूर्वक लिख भी सकते या नहीं, यह प्रश्न ही दूसरा है !
शिवानी, एक ऐसे अवसर पर उस संस्था में पहुँची थीं जब कि उनके कोमल हृदय पर प्रभाव पड़ सकता था। बांग्ला भाषा का जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया वह भी उन्हें बहुत सहायक हुआ। अब मुझे इस बात का पछतावा आता है कि मैंने बांग्ला का विधिवत् अध्ययन क्यों नहीं किया ? तब मैं बांग्ला भाषा-भाषियों के हृदय तक पहुँच सकता था।
आश्रम का वह सुप्रसिद्ध गीत ‘आमादेर शान्तिनिकेतन’ मैंने पहले-पहल सन् 1918 में सुना था और उसे इस पुस्तिका में पढ़कर मुझे तिरपन वर्ष पहले की याद आ गयी।
‘भीगने की छुट्टी’ का विवरण पढ़कर हमें हार्दिक हर्ष हुआ, और उसने हमें ईथिल मैनिन की पुस्तक ‘रोटी और गुलाब’ (Bread and Roses) का स्मरण दिला दिया। उसमें उस अंग्रेज महिला ने भी लिखा था कि वसन्त ऋतु में तो पढ़ाई-लिखाई भी बन्द कर देनी चाहिए। गुरुदेव के उदार स्वभाव का वर्णन शिवानी ने बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है। वे आठ वर्षों तक उस आश्रम में रहीं और उन्होंने अपने समय का सर्वोत्तम उपयोग भी किया। हिन्दी-जगत् में शिवानी ने, अपना जो विशेष स्थान बना लिया है वह शान्तिनिकेतन की ही देन है। मैंने उनकी बड़ी बहन जयंती और भाई त्रिभुवन को भी छात्रावस्था में देखा है। जयंती से गुरुदेव ने कहा था- ‘‘शान्तिनिकेतन का कोई भी छात्र या छात्रा कहीं जाएगा तो एक छोटे शान्तिनिकेतन का निर्णाण करने की इच्छा, उसके मन में सदैव जाग्रत रहेगी।’’
जो छोटी-छोटी घटनाएँ यथास्थान इन पुस्तिका में दी गई हैं वे ही इसकी जान हैं। राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू के आश्रम में पधारने की बात, बड़े मनोरंजक ढंग से लिखी गई है। आश्रम के बस-चालक नीलमनी बाबू का संक्षिप्त रेखाचित्र बहुत अच्छा बन पड़ा है। वे बड़े गर्व से कहते-‘‘यह बस क्या कोई ऐसी-वैसी है ? गांधी बाबा को भी बिठाकर लाया हूँ इसमें !’’ आलू-परवल का किस्सा भी अत्यंत मनोरंजक है। आश्रम के विकास में गुरुदेव के योगवाला अध्याय, काफी प्रेरणाप्रद है। गुरुदेव की धर्मपत्नी ने जिसप्रकार अपने गहने बेचकर आश्रम की रक्षा की थी गुरुदेव को, अपनी दो पुत्रियों तथा कनिष्ठ पुत्र की मृत्यु के कारण कैसा कठोर आघात पहुँचा, पर वे फिर भी कर्मपथ से विचलित नहीं हुए, यह मर्मस्पर्शी वर्णन निश्चय ही सुन्दर बन पड़ा है।
शान्तिनिकेतन की विभूतियाँ, आश्रम में गांधी दिवस, खेल-कूद, मनोरंजन, ये अध्याय सुपाठ्य एवं सरस हैं। क्या ही अच्छा होता यदि इसमें श्री विधुशेखर भट्टाचार्य, बड़े दादा तथा नन्दलाल बोस के भी रेखाचित्र सम्मिलित किए जाते। जिन आध्यापकों के नाम इसमें मिलते हैं, उनमें से बहुतों के दर्शन करने का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ था।
‘गुरुदेव चले गए’ शीर्षक वृत्तान्त हृदयवेधक है- गुरुदेव की उस कविता
कितने ही हिन्दी भाषा-भाषी छात्रों और अध्यापकों को शान्ति में पढ़ने-पढ़ाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और उनमें से कितनों ने उन संस्थाओं के बारे में संस्मरण लिखे हैं। उनमें से कुछ को पढ़ने का मौका मुझे मिला है। आचार्य श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस विषय पर काफी लिखा है और मैं भी कई बार लिख चुका हूँ। पर अब तक, शान्तिनिकेतन के इस विषय में जितने लेख मेरे पढ़ने में आए हैं। उनमें श्रीमती शिवानी कि यह पुस्तक मुझे सर्वोत्तम जँची है। यह आश्चर्य की बात है कि आश्रम की एक छात्रा, सबसे आगे बढ़कर, बाजी मार ले गई और प्रतिष्ठित कहे जाने वाले लेखक पिछड़ गए। बन्धुवर हजारीप्रसाद जी तो यह कहकर सन्तोष कर सकते हैं- ‘शिष्यात् इच्छेत् पराजयम्।’ अर्थात शिष्य से पराजय की इच्छा करे; पर मेरे-जैसा व्यक्ति, जो आश्रम में सर्वप्रथम 1918 में गया था और जो वहाँ चौदह महीने रहा भी था, अपने को क्षमा नहीं कर सकता।
शिवानी की असाधारण सफलता का मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि हर चीज को सूक्ष्म दृष्टि से देखने की क्षमता उनमें विद्यमान है, भाषा पर उन्हें अधिकार है और अपने हृदगत् भावों को वे ज्यों का त्यों प्रकट कर सकती हैं। इस पुस्तिका को पढ़कर, हमारे मन में सबसे पहले यही भाव आया कि हमने ऐसी किताब क्यों नहीं लिखी। पर इतना सफलतापूर्वक लिख भी सकते या नहीं, यह प्रश्न ही दूसरा है !
शिवानी, एक ऐसे अवसर पर उस संस्था में पहुँची थीं जब कि उनके कोमल हृदय पर प्रभाव पड़ सकता था। बांग्ला भाषा का जो ज्ञान उन्होंने अर्जित किया वह भी उन्हें बहुत सहायक हुआ। अब मुझे इस बात का पछतावा आता है कि मैंने बांग्ला का विधिवत् अध्ययन क्यों नहीं किया ? तब मैं बांग्ला भाषा-भाषियों के हृदय तक पहुँच सकता था।
आश्रम का वह सुप्रसिद्ध गीत ‘आमादेर शान्तिनिकेतन’ मैंने पहले-पहल सन् 1918 में सुना था और उसे इस पुस्तिका में पढ़कर मुझे तिरपन वर्ष पहले की याद आ गयी।
‘भीगने की छुट्टी’ का विवरण पढ़कर हमें हार्दिक हर्ष हुआ, और उसने हमें ईथिल मैनिन की पुस्तक ‘रोटी और गुलाब’ (Bread and Roses) का स्मरण दिला दिया। उसमें उस अंग्रेज महिला ने भी लिखा था कि वसन्त ऋतु में तो पढ़ाई-लिखाई भी बन्द कर देनी चाहिए। गुरुदेव के उदार स्वभाव का वर्णन शिवानी ने बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है। वे आठ वर्षों तक उस आश्रम में रहीं और उन्होंने अपने समय का सर्वोत्तम उपयोग भी किया। हिन्दी-जगत् में शिवानी ने, अपना जो विशेष स्थान बना लिया है वह शान्तिनिकेतन की ही देन है। मैंने उनकी बड़ी बहन जयंती और भाई त्रिभुवन को भी छात्रावस्था में देखा है। जयंती से गुरुदेव ने कहा था- ‘‘शान्तिनिकेतन का कोई भी छात्र या छात्रा कहीं जाएगा तो एक छोटे शान्तिनिकेतन का निर्णाण करने की इच्छा, उसके मन में सदैव जाग्रत रहेगी।’’
जो छोटी-छोटी घटनाएँ यथास्थान इन पुस्तिका में दी गई हैं वे ही इसकी जान हैं। राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू के आश्रम में पधारने की बात, बड़े मनोरंजक ढंग से लिखी गई है। आश्रम के बस-चालक नीलमनी बाबू का संक्षिप्त रेखाचित्र बहुत अच्छा बन पड़ा है। वे बड़े गर्व से कहते-‘‘यह बस क्या कोई ऐसी-वैसी है ? गांधी बाबा को भी बिठाकर लाया हूँ इसमें !’’ आलू-परवल का किस्सा भी अत्यंत मनोरंजक है। आश्रम के विकास में गुरुदेव के योगवाला अध्याय, काफी प्रेरणाप्रद है। गुरुदेव की धर्मपत्नी ने जिसप्रकार अपने गहने बेचकर आश्रम की रक्षा की थी गुरुदेव को, अपनी दो पुत्रियों तथा कनिष्ठ पुत्र की मृत्यु के कारण कैसा कठोर आघात पहुँचा, पर वे फिर भी कर्मपथ से विचलित नहीं हुए, यह मर्मस्पर्शी वर्णन निश्चय ही सुन्दर बन पड़ा है।
शान्तिनिकेतन की विभूतियाँ, आश्रम में गांधी दिवस, खेल-कूद, मनोरंजन, ये अध्याय सुपाठ्य एवं सरस हैं। क्या ही अच्छा होता यदि इसमें श्री विधुशेखर भट्टाचार्य, बड़े दादा तथा नन्दलाल बोस के भी रेखाचित्र सम्मिलित किए जाते। जिन आध्यापकों के नाम इसमें मिलते हैं, उनमें से बहुतों के दर्शन करने का सौभाग्य हमें भी प्राप्त हुआ था।
‘गुरुदेव चले गए’ शीर्षक वृत्तान्त हृदयवेधक है- गुरुदेव की उस कविता
आमार जाबार समय होलो –
आमार कैनो राखीस धरे ?
(‘‘मेरे जाने का समय हो गया है,
अब मुझे पकड़कर क्यों रखते हो’’)
आमार कैनो राखीस धरे ?
(‘‘मेरे जाने का समय हो गया है,
अब मुझे पकड़कर क्यों रखते हो’’)
को यथास्थान देकर शिवानी ने उस प्रसंग को और भी प्रभावोत्पादक बना दिया
है।
जैसे कोई कुशल कलाकार, अपनी तूलिका के कम-से-कम प्रयोग द्वारा अनेक सजीव चित्र उपस्थित कर देता है, वैसे ही इस छोटी-सी पुस्तक की यशस्वी लेखिका ने गुरुदेव तथा उनके आश्रम की बीसियों मनोहर झाँकियाँ पाठकों को दिखला दी हैं।
किसी भी पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता यही मानी जानी चाहिए कि वह पाठकों को उसी प्रकार की रचनाओं के लिए प्रोत्साहित करे, और इस दृष्टि से शिवानी की यह कृति एक सफल रचना है।
जैसे कोई कुशल कलाकार, अपनी तूलिका के कम-से-कम प्रयोग द्वारा अनेक सजीव चित्र उपस्थित कर देता है, वैसे ही इस छोटी-सी पुस्तक की यशस्वी लेखिका ने गुरुदेव तथा उनके आश्रम की बीसियों मनोहर झाँकियाँ पाठकों को दिखला दी हैं।
किसी भी पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता यही मानी जानी चाहिए कि वह पाठकों को उसी प्रकार की रचनाओं के लिए प्रोत्साहित करे, और इस दृष्टि से शिवानी की यह कृति एक सफल रचना है।
फीरोजाबाद
बनारसीदास चतुर्वेदी
गुरुपल्ली
आज, जब मैं अपने उन गुरुजनों का स्मरण करती हूँ जिसने मुझे अपने जीवन में
प्रेरणा मिली तो अचानक, तिब्बती मन्त्रजाप के यन्त्र की ही भाँति,
स्मृतिचक्र गोल-गोल घूमने लगता है। कितने ही सौम्य, गम्भीर हँसमुख और कठोर
चेहरे, एक के बाद एक घूमते चले जाते हैं। शान्तिनिकेतन की सम्पूर्ण
गुरुपल्ली, किसी उदार महाजन की भाँति, बिना कर्ज चुकाने का तकाजा किए
सम्मुख खड़ी हो जाती है।
परम श्रद्धेय गुरुदेव का मैंने प्रथम दर्शन सन् 1935 में किया। स्फटिक-सा गौर वर्ण, ज्वलन्त ज्योति-से जगमगाते विशाल नयन गोरे ललाट पर चन्दन का शुभ्र तिलक, काला झब्बा और काली टोपी। यही थे आश्रमवासियों के हृदय-हार गुरुदेव। कितना महान् व्यक्तित्व और कैसा सरल व्यवहार। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े सब उनके स्निग्ध व्यक्तित्व की छाया के नीचे समान थे। चीन, जापान, मद्रास, लंका के छात्र प्रार्थना की घंटी बजते ही, एक कतार में लायब्रेरी के सामाने सिर झुकाकर खडे़ हो जाते। उनमें चीनी बौद्ध छात्रा फांचू रहती और सुमात्रा का मुस्लिम छात्र खैरुद्दीन भी, गुजरात की सुशीला रहती और सुदूर केरलवासिनी कुमुदनी भी। एकमन-एकप्राण होकर सब उपासना में लीन रहते। कभी कोई अनुशासन भंग करने की धृष्टता न करता। आश्रम के इस संयमित वातावरण का रहस्य था स्वयं गुरुदेव का स्नेहपूर्ण संचालन।
मैं तब पाठ-भवन की छात्रा बनाकर आश्रम गई थी। तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ. धीरेन्द्रमोहन सेन हम दोनों बहनों को ‘उत्तरायण’ ले गए। गुरुदेव ‘श्यामली’ में बैठे कुछ लिख रहे थे। संध्या घनीभूत हो गई थी और वीरभूमि की उसी लोहितवर्णी साँझ के धुँधलके में मुझे उन अलौकिक महापुरुष के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हमने प्रणाम किया। सिर पर हाथ धरकर उन्होंने हँसते हुए पूछा, ‘क्यों, बहुत घबरा रही हो क्या ? बांग्ला सीख लोगी तो फिर कभी घर की याद नहीं आएगी। रुको, पूपे से तुम्हारा परिचय करा दें- वनमाली !’’ उन्होंने अपने प्रिय भृत्य वनमाली को हाँक लगाई, ‘‘पूपे, दीदी को बुला लाओ।’’
और फिर अपनी दोनों पौत्रियों से उन्होंने हमारा परिचय ही नहीं कराया, अपने साथ खाना खिलाने के लिए भी रोक लिया। ‘उत्तरायण’ की उसी खाने की मेज पर फिर उन्होंने हमें वोठान प्रतिमा देवी से मिलाकर कहा, उसी, ‘‘ये लड़कियाँ बड़ी दूर से आई हैं। बांग्ला नहीं जानतीं, इसी से शायद कुछ घबरा रही हैं। इन्हें आज रिहर्सल भी दिखा देना, मन बहल जाएगा।’’ उन दिनों वहाँ ‘वर्षामंगल’ की रिहर्सल चल रही थी। पूरे ‘उत्तरायण’ की परिक्रमा कर नन्दिता कृपलानी जिनका पुकारने का नाम ‘बूढ़ी’ था, हमें रिहर्सल दिखाने ले गईं। कलात्मक सज्जा में सँवरे ‘उत्तारायण’ का वह सबसे हवादार कमरा था। चारों ओर बड़ी-बड़ी खिड़कियों के पारदर्शी चमकते शीशों के बीच, गुरुदेव के बाग की अनुपम इन्द्रधनुषी पुष्पछटा किसी पेस्टल के बने मनोहारी चित्र-सी आँखों को बाँध लेती। एक ओर कुमायूँ की चमचमाती गगरियाँ एक के ऊपर एक का सन्तुलन साधती यत्न से सतर खड़ी थीं। कुछ ही दूर पर एक चौड़ा-सा जामनगरी तखत लगा था।
उस पर गावतकिया और काली बर्मी गद्दियों के सहारे स्वयं गुरुदेव बैठे निर्देशन कर बैठे कर रहे थे। उन्हीं से सटकर नीचे शैलजारंजन मजूमदार, शान्तिमय घोष, शिशिर दा, सन्तोष दा और आश्रम के गायक गायिकाओं का दल बिखरा था। देखते-ही-देखते चिकने फर्श पर नृत्यरता निवेदिता दी के घुँघरुओं की झनक, ने हमारा अवसाद पल-भर में धो-पोंछकर बहा दिया -
परम श्रद्धेय गुरुदेव का मैंने प्रथम दर्शन सन् 1935 में किया। स्फटिक-सा गौर वर्ण, ज्वलन्त ज्योति-से जगमगाते विशाल नयन गोरे ललाट पर चन्दन का शुभ्र तिलक, काला झब्बा और काली टोपी। यही थे आश्रमवासियों के हृदय-हार गुरुदेव। कितना महान् व्यक्तित्व और कैसा सरल व्यवहार। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े सब उनके स्निग्ध व्यक्तित्व की छाया के नीचे समान थे। चीन, जापान, मद्रास, लंका के छात्र प्रार्थना की घंटी बजते ही, एक कतार में लायब्रेरी के सामाने सिर झुकाकर खडे़ हो जाते। उनमें चीनी बौद्ध छात्रा फांचू रहती और सुमात्रा का मुस्लिम छात्र खैरुद्दीन भी, गुजरात की सुशीला रहती और सुदूर केरलवासिनी कुमुदनी भी। एकमन-एकप्राण होकर सब उपासना में लीन रहते। कभी कोई अनुशासन भंग करने की धृष्टता न करता। आश्रम के इस संयमित वातावरण का रहस्य था स्वयं गुरुदेव का स्नेहपूर्ण संचालन।
मैं तब पाठ-भवन की छात्रा बनाकर आश्रम गई थी। तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ. धीरेन्द्रमोहन सेन हम दोनों बहनों को ‘उत्तरायण’ ले गए। गुरुदेव ‘श्यामली’ में बैठे कुछ लिख रहे थे। संध्या घनीभूत हो गई थी और वीरभूमि की उसी लोहितवर्णी साँझ के धुँधलके में मुझे उन अलौकिक महापुरुष के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। हमने प्रणाम किया। सिर पर हाथ धरकर उन्होंने हँसते हुए पूछा, ‘क्यों, बहुत घबरा रही हो क्या ? बांग्ला सीख लोगी तो फिर कभी घर की याद नहीं आएगी। रुको, पूपे से तुम्हारा परिचय करा दें- वनमाली !’’ उन्होंने अपने प्रिय भृत्य वनमाली को हाँक लगाई, ‘‘पूपे, दीदी को बुला लाओ।’’
और फिर अपनी दोनों पौत्रियों से उन्होंने हमारा परिचय ही नहीं कराया, अपने साथ खाना खिलाने के लिए भी रोक लिया। ‘उत्तरायण’ की उसी खाने की मेज पर फिर उन्होंने हमें वोठान प्रतिमा देवी से मिलाकर कहा, उसी, ‘‘ये लड़कियाँ बड़ी दूर से आई हैं। बांग्ला नहीं जानतीं, इसी से शायद कुछ घबरा रही हैं। इन्हें आज रिहर्सल भी दिखा देना, मन बहल जाएगा।’’ उन दिनों वहाँ ‘वर्षामंगल’ की रिहर्सल चल रही थी। पूरे ‘उत्तरायण’ की परिक्रमा कर नन्दिता कृपलानी जिनका पुकारने का नाम ‘बूढ़ी’ था, हमें रिहर्सल दिखाने ले गईं। कलात्मक सज्जा में सँवरे ‘उत्तारायण’ का वह सबसे हवादार कमरा था। चारों ओर बड़ी-बड़ी खिड़कियों के पारदर्शी चमकते शीशों के बीच, गुरुदेव के बाग की अनुपम इन्द्रधनुषी पुष्पछटा किसी पेस्टल के बने मनोहारी चित्र-सी आँखों को बाँध लेती। एक ओर कुमायूँ की चमचमाती गगरियाँ एक के ऊपर एक का सन्तुलन साधती यत्न से सतर खड़ी थीं। कुछ ही दूर पर एक चौड़ा-सा जामनगरी तखत लगा था।
उस पर गावतकिया और काली बर्मी गद्दियों के सहारे स्वयं गुरुदेव बैठे निर्देशन कर बैठे कर रहे थे। उन्हीं से सटकर नीचे शैलजारंजन मजूमदार, शान्तिमय घोष, शिशिर दा, सन्तोष दा और आश्रम के गायक गायिकाओं का दल बिखरा था। देखते-ही-देखते चिकने फर्श पर नृत्यरता निवेदिता दी के घुँघरुओं की झनक, ने हमारा अवसाद पल-भर में धो-पोंछकर बहा दिया -
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